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आज का संस्करण

नई दिल्ली, 18 जनवरी 2024

शरद कुमार पांचाल

अंततः सिन्धु सभ्यता की लिपि को सम्पूर्ण रूप से समझ लिया गया है। सिंधु सभ्यता लिपि डिकोड में 150 वर्षों की देरी का कारण एक तो यह है की अब तक इतिहासकार सिंधु सभ्यता लिपि के द्विभाषी लेख का इंतज़ार कर रहे थे  और दूसरा मैक्समूलर के आर्य आक्रमण सिद्धांत ने दृष्टि बाधित कर रखी थी। 2018 में प्रकाशित मेरे ऐतिहासिक मानचित्र "भारत और आर्यों का 3डी  इतिहास" से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रारंभिक ऋग्वैदिक आर्य और सिंधु सभ्यता के लोग समकालीन और समस्थानिक थे। अर्थात वे एक ही थे इसलिए सिन्धु सभ्यता की भाषा आद्य वैदिक संस्कृत भाषा ही है।

 सभी प्राचीन सभ्यताओं की लिपि मूल रूप से उनके आस-पास की वस्तुओं की चित्रलिपि ही हैं। ब्राह्मी लिपि डिकोड पर जेम्स प्रिंस के हस्तलिखित नोट्स में भी यही पद्धति अपनाई गई है। सिंधु लिपि में 38 वर्ण, 40+ चित्रचिह्न, 45+ प्रतीकचिह्न , 6 विराम चिह्न और कई संयुक्त वर्ण चिह्न हैं। मुहर के सांचे में लिपि मूलतः बांयी से दायीं ओर अंकित की जाती है फिर उसका दर्पण प्रतिबिन्म उभार के साथ लिया जाता है, इस प्रकार सिन्धु लिपि दायीं से बांयी ओर पढने की भाषा बन जाती है। कालान्तर में उभार वाले प्रतिबिन्म मुहर बनाने की प्रथा बंद हो गयी और यह लिपि बांयी से दायीं ओर पढ़ी जाने लगी।

सिंधु सभ्यता के लोग ही मूल आर्य थे - आर्य शब्द उगते सूर्य से लिया गया है,  सभी प्रतिष्ठित व्यक्तियों के सम्बोधन में आर्य शब्द का प्रयोग किया जाता था, ऋग्वेद में आर्यों ने अपना निवास सप्त सिन्धु ही बताया है,विकसित सिन्धु सभ्यता में भी मूलतः सात प्रान्त थे। इसलिए सैन्धव और ऋग्वेदिक दोनों जन आर्य ही है। प्राचीन विश्व की सर्वाधिक विकसित नगरीय सभ्यता "सिन्धु सभ्यता" जिसे अब तक इतिहासकार कुछ व्यापारिक समूहों की सभ्यता मानते थे वास्तव में आर्यावृत का "सप्त सिंधु" साम्राज्य था। सिन्धु नदी के समीप रहने वाले छ: प्रान्तों ने विकास के लिए एक संघ “षड सैन्धव” बनाया, इन प्रान्तों के अपने–अपने प्रतीक थे: गैंडा, बगुला, भैंसा, बैल, हाथी, भेड़। कालान्तर में एक ही प्रान्त मह्मे(मोहनजोदड़ो) के मुखिया  “राजा” हुए और बाकी कुल के मुखिया “क्षत्रप”। सिन्धु नदी के ऊपर “सप्त सैन्धव मुहर”/ “पशुपति मुहर” रखने पर सातों प्रान्तों की उपस्तिथि मिलती है। राजा को भूप, चक्रवत, आर्यपति आदि कहा जाता था, राजा की सन्देश मुहरों पर हाथी प्रतीक है, राजाओं के स्व-चित्र आमतौर पर दो बाघों को पकड़े हुए होते थे। प्रान्तों में राज्य की और से क्षत्रप नियुक्त होते थे जो राजधानी में मंत्री से संपर्क में रहते थे, राजपुत्र भी क्षत्रप होते थे।

क्षत्रपों को नप्र भी कहा जाता था,  परिवाहक को वहा कहा जाता था और वस्तु विनिमय को मेम कहा जाता था। हाथी चिन्ह धारक, महम (मोहनजोदड़ो) का शासक, अन्य कुलों को एकजुट करता है और नियंत्रित करता है। यह सभी के लिए वस्तु विनिमय की सुविधा और प्रबंधन करते हैं। महम शहर का नाम ‘मेम’ वस्तु विनिमय के नाम पर पड़ा। महम अंततः एक शक्तिशाली साम्राज्य  बन गया। राज्य का विभिन्न वस्तुओं की विनिमय दरों पर पूर्ण नियंत्रण था विशेषकर धातुओं की विनिमय दरों पर और इन्ही दरों में राज्य का कर भी नियत होता था। सिन्धु सभ्यता के लोग कुशल नाविक एवं व्यापारी थे। 

साम्राज्य की रक्षा के लिए राज्य में स्थायी सेना का प्रबंध था। सेना में चमड़े के कवच पहने भाला धारको के साथ धनुर्धरों का भी दल था। चोरी रोकने के लिए और चोरो को पकड़ने के लिए पुलिस और जासूसी तंत्र भी उपस्थित था। सिन्धु सभ्यता में स्वर्ण, चाँदी, तांबा, टिन धातु अयस्क ज्ञात थे।  टिन का ज्ञात स्रोत था शश प्रान्त (तुर्की)। टिन के महत्व को समझते हुए सैन्ध्वों ने उहग प्रान्त (अरब) और शश प्रान्त (तुर्की) अधिकार क्षेत्र में ले लिया था। इन प्रांतों में अमात्य और दंडाधिकारी भी नियुक्त किये गए थे। नई भूमि पर जीवन का संघर्ष मोहेंजोदड़ो से मिली ताम्र मुहरों में दिखाई पड़ता है। सिन्धु मुहरों का एक प्रमुख विषय आयुर्वेद भी है। सिन्धु मुहरों में कई आयुर्वेदिक औषधियों का नाम, पहचान, औषधीय गुण और प्रयोग का उल्लेख मिलता है। खैर, शमी, बेल, करंज आदि औषधियों का उल्लेख है।

सिंधु सभ्यता का एकश्रृंगी पशु कोई मिथकीय एक सींग वाला घोडा नहीं है बल्कि हरिक (नर नीलगाय) है। एकश्रृंगी हरियूपिया (हड़प्पा) प्रांत का प्रमुख बलि पशु है। यही राज्य के अधीन क्षत्रपों का प्रतीक भी है। सिंधु सभ्यता में प्रशासक गण और सामान्य नागरिकों के जीवन स्तर में भेद तो है परन्तु समाज में जातीय भेदभाव नहीं है, सभी प्रकार की वस्तुओं के उत्पादकों का समान सम्मान है। नृत्य और खेल प्रतियोगिताएं भी हुआ करती थी।

 सिंधु सभ्यता में स्मारकीय मंदिर मठों की अनुपस्थिति के कारण इतिहासकारों को इसकी धार्मिक स्थिति विकेन्द्रित और मूलतः नास्तिकवादी लगी, परन्तु वास्तव में सिंधु सभ्यता के लोग यय (शिव) के उपासक है। यय (शिव) सिन्धु सभ्यता के एकमात्र सर्वमान्य आराध्य देव है। सिंधु सभ्यता की मुहरों का एक बड़ा हिस्सा केवल शिव को समर्पित है। यय(शिव) भगवान् को कई उपाधियों से सुसज्जित किया गया है। वार्तालापों में संबोधन के तौर पर शिव स्तुति है। यहाँ शिव ही परम प्रकृति है जिन्हे तीन सिर वाले मनुष्य के रूप में चिन्हित किया गया है। शिवोपासना ही वह डोर है जो सम्पूर्ण सिंधु सभ्यता को एक सूत्र में पिरोती है। सैन्धव राजा और जनता स्वयं को शंकर भगवान् का वंशज मानते थे।

सिंधु सभ्यता पतन पर इतिहासकारों ने नदी के पैटर्न में बदलाव या जलवायु परिवर्तन आदि कई प्रस्ताव दिए। परन्तु पूर्व धारणाओं के विपरीत सिंधु सभ्यता मुहरों में आंतरिक विद्रोह का परिदृश्य स्पष्ट रूप से उभर कर आता है। करों की अनुचित दरो को लेकर वहा प्रान्त (भैंसा प्रतीक) और राजधानी मह्मे में विरोध हुआ। अंतिम सैन्धव राजा शम्बबसो ने वहा ऋषि(प्रमुख)त्रित को मृत्युदंड के रूप में मगरमच्छ की मांद में डाल दिया गया, जिसमें से वे बच निकले। वापस आकर त्रित ने लोगो को संगठित किया और विद्रोह किया।  त्रित्सुओं के नेतृत्व में विद्रोह सफल हुआ।  इस युद्ध में पांच सिन्धु राज्यों का नाश हो गया। सृंजय-त्रित्सु वहिको के रूप में सिन्धु अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण अंग थे। यही अर्थव्यवस्था सिन्धु के नगरीय जीवन का आधार थी। वहा विद्रोह और दस्राग्य युद्ध में त्रित पौत्र दिवोदास की जीत के साथ ही यह व्यवस्था बिखर गयी।

त्रित्सु-विद्रोह को कुचलने के लिए मह्मे(मोहनजोदड़ो) के राजा ने वर्चिवृत (ईरान का असीरिया साम्राज्य) की सेना का सहारा लिया जो हरियुपिया(हड़प्पा) में रुकी थी । इन्होने सैन्धव सेना के साथ मिलकर त्रित्सू राज्य में कई भयंकर लूट को अंजाम दिया था। पुरुषनी के युद्ध में (दस्राग्य युद्ध – द्वितीय भाग) में अंतिम सैन्धव राजा शम्बरसो की मृत्यु के साथ ही विदेशियों का अस्तित्व संकट में आ गया क्योंकि उन्होंने त्रित्सू से युद्ध में सैन्धवों का साथ दिया था। उन्हें यह गुमान था की आर्य उनके अश्वों का पीछा नहीं कर पाएंगे और एक बार वे असीरिया पहुँच गए तो आर्य असीरियन  राजा से टक्कर लेने का साहस नहीं करेंगे। परन्तु उनका यह गुमान मिथ्या साबित हुआ और त्रित्सू कुल के दिवोदास पुत्र प्रतर्दन ने असीरिया पर अश्वमेध करने का प्रण लिया और सफल हुआ, यही पहला अश्वमेध था।

1550 ई०पू० में जब पश्चिमी एशिया पर भारत से आये मित्तानी आर्यों (त्रित्सूओं) का अधिकार हुआ और वे यूरोप के संपर्क में आये तब उन्होंने यूरोप वालो को सिन्धु लिपि, ध्वनियों और संस्कृत भाषा का सम्पूर्ण ज्ञान दिया जिससे भारोपीय भाषा परिवार की अन्तोलियन – हेल्लेनिक शाखा बनी। हित्ती –मित्तान्नी - कैसाइट - एलमाईटआर्य राज्यों के अंत और असिरियनों के पुनः उत्थान के साथ ही 800 वर्षों का भारत और यूरोप का सीधा सम्बन्ध टूट गया। 1150ई०पू० में मित्तान्नी आदि आर्य पूर्वी यूरोप में बिखर गये और भारोपीय परिवार की बलटो-साल्विक शाखा का उदय हुआ।

 सिंधु सभ्यता की लिपि की व्याख्या से यह निष्कर्ष निकलता है कि कैसे भारत 2000 ईसा पूर्व में जीवन के हर पहलू में विश्व शिक्षक और अग्रणी बन गया था। सिंधु सभ्यता को “पुरातन-आर्य साम्राज्य” कहा जाना चाहिए और वैदिक काल को “नवीन-आर्य साम्राज्य” कहा जाना चाहिए। (शब्द 1280)

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{ श्री शरद कुमार पांचाल पुस्तक “सिन्धु सभ्यता लिपि की सम्पूर्ण व्याख्या” के  लेखक है।}

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